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वसतं फिर आ गया है। यह अलग बात है कि उसके आने की खबर किसी को नहीं। खबर हो भी कैसे। न तो किसी अखबार में विज्ञापन छपा, न ही टीवी चैलनों की ब्रेकिंग न्यूज में ही वह स्थान पा सका। बेंगलूरू जैसे शहरों में जहां लोगों को पास-पड़ोस की घटनाओं का भी पता नहीं होता, उन्हें वसंत के आने की खबर हो तो कैसे? यहां महुआ भी नहीं है जो वसंत के आने पर रस से भर जाए और बद से चू पड़े। अमराई नहीं है तो कोयल की कूक कहां गुंजेगी। कोयल की कूक अब लोगों के मोबाइल में रिंगटोन के रूप में बजती है। लेकिन उसका वसंत से कोई लेना-देना नहीं। वसंत के प्रति लोगों की इसी उदासीनता के चलते गुलमोहर लाल-पीला हो रहा है, लेकिन यातायात जाम में फंसे लोगों से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे उधर ध्यान दें।
पहले सड़क के किनारे पेड़ों की कतार हुआ करती थी और फूल राहों में बिछे जाते थे। वसंत के आने पर अंगड़ाई लेने वाले पेड़ अब लोगों के लिए रास्ता बनाकर हट चुके हैं। हवा कभी ताजगी से भरी होती थी लेकिन अब सड़कें खुदी पड़ी हैं और हवाओं के नाम पर धूल का गुबार है। शहर तेजी से विकास की राह पर है और मेट्रो रेल के लिए रास्ता निकाला जा रहा है। एसे में कैसे पता हो कि वसंत आ गया है।….
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