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पिपहरी और चोटहिया जलेबी
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के मेरे गाँव पांडेयपुर क़ी रामलीला आज सम्पन्न हुई। रामलीला के बाद पास ही एक छोटे से मैदान में मेला लगता है। मेले से लौटे एक मित्र से दूरभाष के जरिए मेले के माहौल की जानकारी मिली। मन बचपन की गलियोमें खो सा गया। याद आया, कैसे महीने पहले से मेले की तैयारियां होने लगती थीं।मेला मैदान में लगने से पहले ही सैकड़ों बार हमारे मन में लग जाता था. दिन गिने जाते थे. और फिर जिस दिन मेला आ जाता था, उस दिन सुबह अलग अंदाज में होती थी. मेला स्थल पर पहुँचने का जो उल्लास था, उसके क्या कहने? दूर से विचित्र सी मिली-जुली आवाजें कानो में पड़ती थीं और कदमों में जैसे पंख लग जाते. आ जाओ जलेबी के खाने वाले, वारी गुलाब वाला है, ऐसा गट्टा कहीं नहीं मिलेगा, जैसी आवाजें. कई दिन पहले से बात-बात पर मां से पूछता था, मेला देखने के लिए इस बार पांच रूपए मिलेंगे ना? मां ने कभी ना कहा हो याद नहीं आता लेकिन आप से क्या छुपाऊं, पूरे पांच रूप कभी नहीं मिले। यह अलग बात है कि 1970 के दशक के उन दिनों में दो रूपए भी बहुत थे.मेले से लौटते समय बादशाह होने जैसी खुशी मिलती थी। जेब भरी रहती थी और हाथ भी. अन्य साथियों की जेबों में भी कोई बहुत ज्यादा नहीं होता था. सबके सुख और दुःख भी समान हुआ करते थे. पिपहरी बजाते हुए लौटते थे. महुए के पत्तों से बने दोनों में गरम-गरम चोटहिया जलेबी लिए हुए. चोटहिया जलेबी गुड के सीरे से बनती थी और कसम से आज के किसी पंचतारा होटल में भी वैसा स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ शायद ही मिले.
मित्र ने बताया क़ि अब चोटहिया जलेबी की एकाध दुकान ही आती है और गुड के सीरे में डूबी जलेबियाँ नहीं मिलती. बच्चे पिपहरी आदि के बजाय काग वाली बन्दूक पसंद करते हैं, और यह भी क़ि मेला धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है. कुछ चाट के ठेले, कुछ मिठाई क़ी दुकानें,कुछ बिसारती के सामान.बस.
उस समय घर क़ी जरूरत क़ी अधिकांश चींजे मेले से ही खरीदी जाती थी. यही कारण है कि बुजुर्ग और महिलाएं भी मेले का इंतजार करते थे. टिकुली, शीशा, फीता, लाली, महावर मेले में खरीदे जाते थे. दूर-दूर से व्यापारी आते. अनाज भी बिकता था, दलहन भी.
पता नहीं अब मेले से लौटते समय बच्चों को कैसा लगता होगा? वह आह्लाद अब वे कहाँ पाते होंगे? सच कहूँ तो वैसा आह्लाद अब हमारे जीवन में भी कहाँ हैं? कुछ भी, कितना भी मिल जाए कम और फीका ही लगता है.
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