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राजनीति के अपराधीकरण की खबरों के बीच चारा घोटाला मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के जेल जाने व मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को सजा सुनाने की खबर राहत भरी है। ऐसा नहीं है कि इनके जेल जाने से राजनीति में बाहुबलियों का वर्चस्व कम हो जाएगा या भ्रष्ट राजनेताओं पर नकेल कस जाएगी, फिर भी यह विश्वास तो कहीं न कहीं मजबूत होता ही है कि अंत बुरे का बुरा और इस विश्वास को बनाए रखने की जरूरत है।
लालू यादव बिहार के आम आदमी के नेता बनकर उभरे और उन्होंने आम आदमी के विश्वास को उस्तरे से मंूडा। उनके शासनकाल में बेजोड़ प्रतिभाओं की भूमि बिहार की ऐसी दुर्गति हुई कि वह पिछड़ेपन का पर्याय बन गया। बिहार में उद्योग-धंधे ठप पड़ गए और अपराध हजारों रंग-रूप में खूब फला-फूला। राजनेताओं की छवि को रसातल में पहुंचाने और उन्हें फूहड़ और हास्यास्पद बनाने में लालू ने कोई कसर नहीं रखी थी। अपनी हास्यास्पद टिप्पणियों से उन्होंने राजनेता और नौटंकी के विदूषक के अंतर मिटा दिया था। इसी का परिणाम है कि लालू के नाम पर जितने चुटकुले बने, उतने चुटकुले किसी अन्य राजनेता के हिस्से में नहीं आए।
यह एक विडम्बना ही है कि चारा घोटाला मामले में न्याय होने में 17 साल लग गए लेकिन इससे इसका महत्व व प्रभाव कम नहीं हो जाता। रसीद का मामला तो इससे भी पुराना 1990-91 का है। तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे रसूद को अयोग्य उम्मीदवारों को सीटें आवंटित करने का दोषी ठहराया गया है। कानून के शासन के प्रति लोगों की आस्था बनी रहे उसके लिए जरूरी है कि न्याय में देर न हो।
आज स्थिति यह है कि लोग राजनीति में आना ही इसलिए चाहते हैं कि यहां सफलता का मतलब है लूट की छूट। यहां तक कि ग्राम प्रधान या शहरों में पार्षद बनने वाला ही लाखों कूट लेता है। लालू व मसूद के इस हश्र से राजनीति को धन बटोरने का जरिया मान चुके लोगों को एक संदेश तो मिला ही होगा कि राजनीति में लूट का मतलब हमेशा छूट नहीं होता। ऐसे लोगों की जगह सिंहासन नहीं, सीखचों के पीछे है।
ऐसे फैसले संतोषजनक तो हैं लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि फिर कोई ‘लालूÓ नहीं बने। राजनीति के गंदे पानी में मगरमच्छों का जन्म न हो, इसके लिए एकाध मगरमच्छ का पकड़े जाना ही पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता पूरे पानी को बदलने की है।
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